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केदारनाथ मंदिर से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें, जो आपको जानना चाहिए

केदारनाथ मंदिर जहां भोलेनाथ वास करते हैं। केदारनाथ धाम की 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचे स्थान पर गिनती होती है और मंदाकिनी नदी के निकट समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। आज हम उसी पवित्र भूमि के कुछ रोचक तथ्यों से आपको अवगत कराएंगे।

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1) इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास कम शब्दों में यह है कि, हिमालय के केदार शृंग पर प्रभु नारायण के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि जन तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भोलेनाथ प्रकट हुए और उनकी प्रार्थना स्वीकार की और ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर स्तिथ हैं।

2) शिवलिंग का आकार त्रिकोणी है, इसलिए यह एक अनूठा मन्दिर है। यहां उनके वाहन नंदी के साथ उनकी पत्नी पार्वत, कान्हा जी, पांडव, द्रौपदी, वीरभद्र एवं अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी हैं।

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3) इस मंदिर को सर्दियों में 6 माह के लिए बंद कर दिया जाता है। मूर्ति को ओंकारेश्वर मंदिर में लाया जाता है और वहीं छह माह तक पूजा होती है।

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4) यह मंदिर छह फीट ऊंचे मंच पर स्तिथ है. आश्चर्यजनक
बात है कि इतनी ऊंचाई पर अत्यंत भारी पत्थर लाकर मंदिर को किस तरह तराशा गया होगा. विशेषज्ञों का कहना ​​है कि पत्थरों को जोड़े रखने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक इस्तेमाल की गई है. यही वजह है कि मंदिर नदी के बीच इतने समय से उसी प्रकार खड़ा है ।

5) 400 साल तक ये मंदिर पूर्णतः बर्फ में डूबा रहा ।आरके डोभाल कहते है कि यह मंदिर अविश्वनीय रूप से बहुत मजबूत है. इसकी दीवारें 12 फूट मोटी चट्टानों से ढकी हुई हैं और इसकी छत एक ही पत्थर की बनी है. कुछ विद्वानों का मानना है की यह मंदिर हमेशा सुरक्षित रहेगा चाहे कोई भी विपदा आजाये ।

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7.) कहा जाता है कि, इस मंदिर को कई मुश्किलों और प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ा है, इसके बाद भी यह मंदिर मजबूती से खड़ा है। आपको याद होगा 2013 में आई बाढ़ ने सब तहस नहस कर दिया था परंतु मंदिर वैसा का वैसा ही सुरक्षित खड़ा रहा।

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8) केदारनाथ नाम ‘कोडाराम’ शब्द से निर्मित हुआ है . माना जाता है कि असुरों से विजय प्राप्त करने के लिए देवताओं ने भोलेनाथ की आराधना की थी तब भोलेनाथ बैल के रूप में अवतरित हुए और असुरों का संघार किया एवं अपने सींगों से उठा कर मंदाकिनी में फेंक दिया।

9) यहां के मुख्य पुजारी कर्नाटक के वीरशैव समाज से संबंध रखते हैं, वह पूजा खुद नहीं करते हैं, पूजा अर्चना उनके सहायक द्वारा की जाती है । जब मूर्तियों को छह माह के लिए दूसरे मंदिर में रखा जाता है तो ये भी उन्ही के साथ चले जाते हैं।

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